स्वयंसेवकों को जोड़ने वाले चमनलाल जी: एक अद्वितीय यात्रा

 


चमनलाल जी, जिन्होंने दुनिया भर में स्वयंसेवकों को एक सूत्र में पिरोने का कार्य किया, का जन्म 25 मार्च 1920 को ग्राम सल्ली (स्यालकोट, वर्तमान पाकिस्तान) में एक संपन्न व्यापारी श्री बुलाकीराम गोरोवाड़ा के घर हुआ था।

प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

चमनलाल जी बचपन से ही मेधावी छात्र थे। वे न केवल पढ़ाई में अव्वल थे, बल्कि कबड्डी और खो-खो के भी उत्कृष्ट खिलाड़ी थे। गणित में उनकी विशेष प्रतिभा को पूरा शहर मानता था। 1942 में उन्होंने लाहौर विश्वविद्यालय से वनस्पति शास्त्र में एमएससी की डिग्री स्वर्ण पदक के साथ प्राप्त की।

संघ से जुड़ाव और प्रचारक जीवन

1936 में वे संघ की शाखा से जुड़े। 1940-41 में उन्होंने महात्मा गांधी के वर्धा स्थित सेवाग्राम आश्रम में भी कुछ समय बिताया, परंतु वहां उनका मन नहीं रमा। विभाजन के कठिन समय में, 1942 में वे 52 युवकों के साथ प्रचारक बने और उन्हें हिमाचल प्रदेश के मंडी क्षेत्र भेजा गया। वहां उन्होंने हजारों किलोमीटर की पदयात्रा कर सैकड़ों शाखाएं स्थापित कीं।

1946 में उन्हें लाहौर बुलाया गया, जहां वे विभाजन के दौरान विस्थापित हिंदुओं की सहायता में लगे रहे। विभाजन के बाद, 1947 में वे जालंधर और फिर 1950 में दिल्ली आ गए, जहां उन्होंने संघ के झंडेवाला कार्यालय को व्यवस्थित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

संपर्क और संगठन

विदेशों में बसे स्वयंसेवकों के साथ संपर्क बनाए रखना उनकी विशेषता थी। वे उनके नाम, पते और फोन नंबर सुरक्षित रखते थे। मॉरिशस के राष्ट्रपति अनिरुद्ध जगन्नाथ ने उन्हें अपने पुत्र के विवाह में राजकीय अतिथि के रूप में आमंत्रित किया था। विदेश यात्रा करने वाले स्वयंसेवकों के लिए वे पहले से ही सारी व्यवस्थाएं सुनिश्चित कर देते थे। उनका बेतार फोन हमेशा उनके पास रहता था, जिसे लोग मजाक में उनका "बेटा" कहते थे।

संघ का अभिलेखागार और ऐतिहासिक दस्तावेज

झंडेवाला कार्यालय में पूज्य श्री गुरुजी से मिलने आने वाले प्रमुख व्यक्तियों की चर्चाओं के महत्वपूर्ण बिंदु वे अपनी डायरी में लिखते थे। उनकी ये डायरियां संघ के इतिहास का अभिन्न हिस्सा बन गईं। कश्मीर आंदोलन के दौरान श्री गुरुजी ने डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को सावधान करने के लिए उन्हीं के हाथों एक पत्र भेजा था।

आपातकाल और संघर्ष

आपातकाल के दौरान, जब स्वयंसेवकों पर अत्याचार हो रहे थे, चमनलाल जी भूमिगत रहते हुए एक छोटी टाइप मशीन से इन घटनाओं का विवरण तैयार कर विश्वभर में भेजते थे। इससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दबाव बना और सरकार को अपनी नीतियों पर पुनर्विचार करना पड़ा।

अंतिम समय और विरासत

फरवरी 2003 में वे विश्व विभाग के एक कार्यक्रम के लिए मुंबई गए, लेकिन उनका स्वास्थ्य लगातार गिरता रहा। 8 फरवरी को हालत बिगड़ने पर उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया, और 10 फरवरी 2003 को इस महान संगठनकर्ता ने अपनी अंतिम सांस ली।

चमनलाल जी का जीवन सादगी, समर्पण और संगठन की अनूठी मिसाल है। उनकी लिखी डायरियां और उनका योगदान संघ तथा समाज के लिए अमूल्य धरोहर हैं।

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